Saturday, October 22, 2011

क्या करूँ...!

सुना है उन्हे जन्मो के वादे नहीं पसंद,
मै रेत के किले न बनाऊं तो क्या करूँ!

फिर वही मौसम आया है सर्दी का,
मैं ख्वाबे दिल न जलाऊ तो क्या करूँ!

न कोई आहट, न दस्तक, न कोई सुराग है,
यादों से दिल न बहलाऊ तो क्या करूँ!

बीच राह में छोड़ कर उसने मुड़ के भी न देखा,
हर फ़िक्र को धुए में न उडाऊ तो क्या करूँ!

खुश है वो अपने आप में, मेरे बिना,
मैं अपने आंसू न छुपाऊ तो क्या करूँ!

न कोई गुफ्तगू, न एक मुलाकात मुझसे मंज़ूर है,
इस हुक्म को भी सर-आँखों न लगाऊ तो क्या करूँ!

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