Monday, May 14, 2012

आखिर क्यों?

एक दलदल सा है
जितना खींचती हू बाहर,
और धास्ती जाती हू |
काफी हैं लोग नज़र में
फिर भी दिल को तन्हा ही पाती हू |
फिर वर्षा हुई,
तबले की थाप के साथ,
पर मैंने तन्हा ही पाया
अपना हाथ |
तुम वहीँ ग़ुम हो
अकांक्षाओ में अपनी !
और मैं हू बस
पुरानी यादों में दफ्नी |
डर है, गुमान है, गुस्सा है,
शिकवा है, दर्द भी है,
किस से करू बयां
अपने रूह के घाव ये ?!
वो कहता है
एक कदम तो बढाओ आगे
बाक़ी सफ़र मैं तै कर दूंगा |
तकदीर फिर आमने सामने ले आई
पर तुमने फिर कर दिया
हर बार की तरह अनदेखा |