Saturday, August 27, 2011

"भुला नहीं पाई हूँ तुम्हे"


हर दिन के शुरू होने पर,
कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है,
जो याद तुम्हारी दिला जाता है,
एक बार फिर तुम्हारा मासूम सा चेहरा,
मेरी आँखों के सामने छा जाता है,
...भुला नहीं पाई हूँ तुम्हे!

ऐसा नहीं कि आंखें नम हैं,
बिछड़ने का ग़म भी शायद नहीं,
न वो तड़प, न वो जलन है,
फिर भी मिल जाने की एक आस सी है,
इसी लिए लगता है,
भुला नहीं पाई हूँ तुम्हे!

ठंडे कोहरे से भरी सुबह और रातों में,
याद आती हैं तुम्हारी सांसे,
हर ग़ज़ल के हर शेर से,
याद आती हैं तुम्हारी बातें,
आइने में क्या अपने आप को देखती हूँ!
भुला नहीं पाई हूँ तुम्हे!

शायद तुमने कभी मेरी कद्र नहीं जानी,
शायद मैं तुम्हे कभी समझ नहीं पाई,
तकदीर के आगे बस किसका चलता है!
ये जो दिल है, ये किसी की कब सुनता है!
और मैं तो खुद मन हूँ,
शायद तुम तो भुला ही चुके मुझे ,
लेकिन तब भी भुला नहीं पाई हूँ तुम्हे!